ज़िन्दगी तस्वीर दिखाती है,
हमसफ़र अपना बनाती है,
कौन जाने कब रुक जाए राह,
इस सोच से मंजिल के करीब लाती है।
ज़िन्दगी तस्वीर दिखाती है,
हमसफ़र अपना बनाती है,
कौन जाने कब रुक जाए राह,
इस सोच से मंजिल के करीब लाती है।
आज लगभग तीन माह बाद आपके सामने हूँ। कभी सोचती थी किशायद ऐसा मौका ही नहीं आएगा जब मैं अपने किसी भी काम से बहुत दिनों तक दूर रहूंगी। इधर वक्त ने आइना दिखाया और पिछले दो माह एक तरीके से पलंग पर गुजरे।
इस दौरान अध्ययन किया, कुछ नईबातें सीखी। आब आए हैं तो मिलना जुलना होगा ही।
आते तो हैं वे हमारे ब्लाग पर मगर खुद को दर्शाते भी नहीं। कल से आज तक हमारे ब्लाग पर आने वालों की संख्या में कुल 22 का इजाफा हुआ किन्तु टिप्पणी करने के मामले में एक भी सामने न आया। क्या टिप्पणी ‘गिव एण्ड टेक’ का मामला है?
क्योंकि देखा है कि कोई अपना टेम्पलेट बदलने तक की सूचना देता है तो टिप्पणियों के ढेर लग जाते हैं। कोई ब्लाग पढ़ने की सूची देता है तो भी लोग लग जाते हैं टिप्पणी देने में। कोई तो अपने पूरे परिवार के नाम पर ब्लाग बनाये है, कोई दे या न दे वे खुद ही दर्जनों के भाव से टिप्पणी लगा देते हैं।
अरे यारों, अब तो कर दो एक दो टिप्पणीं यहाँ भी। वैसे टिप्पणियों का शौक नहीं क्योंकि अपने मीडिया के शौक में वैसे भी बहुत टिप्पणी खाने को मिलतीं हैं।
हाँ, यदि हमारी फोटो के डर से टिप्पणी न करते हो कि कहीं कोई देख न ले कि नंगी लड़की वाली फोटो वाले ब्लाग को पढ़, देख रहे हैं या उस पर टिप्पणी की दी है तो कोई बात नहीं।
सड़क पर ऐसी हालत वाली मिल जाये तो लार बना-बना कर निहारोगे?
चलो कोई बात नहीं, ऐसी बात है तो दो-चार दिन में ये वाली फोटो मैं हटा लूँगी। तब देखने भी न आओगे, इस ब्लाग को क्योंकि अभी कुछ तो दिखता है, है न?
इस पर दो पंक्तियाँ याद आतीं हैं-
‘अंदाज अपने देखते हैं आइने में वो,
और ये भी देखते हैं कि कोई देखता न हो।’
चलो छोड़ो....
कौन जाने तुम धीरे से आकर क्या कह जाते हो।
नींद आंखों से चुरा लिए जाते हो।
रात कटती है फ़िर जागते-जागते।
सुबह होने पर फ़िर रात का इंतज़ार करवाते हो॥
सपनों की उड़ान इतनी तेज भी नहीं थी किउसे पूरा भी न कर सकती थी पर लगा कि अब हारना ही है। ऐसा ही कुछ आया था दिमाग में जब कि मैं चली जा रही थी उस पार। सब कुछ ठीक वैसा ही पाया जैसा कि छोड़ गई थी। वही दीवार, वही दरवाजे, वही खिड़कियाँ.......लोग भी वही पर कुछ ऐसा भी लग रहा था कि जैसे कुछ बदल भी गया है।
हाँ जी बदला था तो अब लोगों का नजरिया। इधर अपनी शौकिया पत्रकारिता के कारण फील्ड में थी। घूमते-घामते अपने गाँव की तरफ़ मुड़ गई। वहां लोगों को देख कर लगा कि अब वो बात नहीं रह गई है। आदमी की शक्ल में अब दरिन्दे घूमते दिख रहे थे। नजरों में वहशीपन, हर कोई उनको अपना दुश्मन दिख रहा था। कारण था चुनाव.....
इस चुनाव में न जाने और क्या-क्या होगा?
आओ मैं तुम्हें
अपने प्यार से सराबोर कर दूँ,
आओ मैं तुम्हारे
व्यथित मन को शांत कर दूँ,
आओ मैं तुम्हारी
धड़कनों को धड़कने का बहाना दूँ,
आओ मैं तुम्हें
जिन्दगी जीने का ठिकाना दूँ,
आओ मैं तुम्हें
अपने तन की तपिश दूँ,
मैं तुम्हें दे सकती हूँ
वह सब जो तुम चाहो,
मैं दे सकती हूँ वह सुख
जो तुम तलाशो,
आओ मेरी बाँहों में
और खो जाओ मेरी दुनिया में,
न शरमाओ,
पास आओ,
तुमने तो खोजा है हमेशा
नारी में उसका तन,
नहीं खोजा उसका मन,
तुम्हारी तलाश के लिए नहीं,
तुम्हारी प्यास के लिए नहीं,
मैं सब कुछ दे सकती हूँ,
क्योंकि
मैं नारी हूँ,
मैं माँ हूँ,
मैं दात्री हूँ,
पर एक पल को रुको
और सोचो,
तुम क्या हो?
जीत हुई उन नर पिशाचों की जो खुलेआम तो खून नहीं पीते पर अपने अंगों (गुप्त) के द्वारा बच्चियों का खून पीते हैं। कोई पूछेगा उनसे की होली में की गई इस शारीरिक क्रिया से उन्हें क्या सुख मिला?
कोई नहीं पूछेगा.......लड़की को ही छिनाल, बेहया, बेशर्म कहा जायेगा।
फूलों का एक गुच्छा उस बच्ची के नाम
(गूगल से साभार लिया है)
होली का दिन.......
हुल्लड़ करने वालों की भीड़.....
दस-ग्यारह वर्ष की लड़की (इसे बच्ची ही कहेंगे शायद?)......
रंगों की फुहार......
बच्ची का घेरना......
और फ़िर कुछ देर बाद..............
खून से लथपथ सनी बच्ची........
अब अपने बड़े हो जाने (या करवा दिए जाने ) का दर्द सहना .........
इसे क्या कहेंगे.......बलात्कार.....सेक्स.....हुल्लड़......या होली की उमंग?
ऐसे गुजर गई इस बार हमारे शहर में होली........
रंगो का त्योहार होली कल है। लोगों का शुभकामनायें देना और कहीं न कहीं रंग लगाने का क्रम शुरू हो भी चुका है। मजे उन लोगों के हैं जो आम दिनों में कुछ नहीं कर पाते और अब होली के बहाने भाभी का नाम लेकर रंगों में सराबोर होकर उनके शरीर को किसी न किसी रूप में छूने की कोशिश करेंगे।
क्या अब होली का यही अर्थ रह गया है?
बहुत अच्छी तरह से याद है कि बचपन में हम सब भाई बहिन एक साथ टोली बना कर लोगों के घरों में आया जाया करते थे पर अब????? अब ऐसा कुछ भी नहीं बचा। अपने आपमें सिमट कर घर के लोगों के साथ ही होली के आयोजन की औपचारिकता का निर्वाह कर लेते हैं और बस।
बाहर जाने पर तमाम तरह के कमेंट, शराब पिये लड़कियों को लालचियों की तरह घूरते लोग, आँखों ही आँखों में सारे शरीर से खेलते लोग, बिना बदन छुए ही बलात्कार करते लोग................. क्यों खलें बाहर निकल कर ऐसी होली?
घर पर ही रहे और आपको कहते हैं ‘‘होली मुबारक’’
कुदरत ने औरत बनाया, आदमी बनाया। आदम हव्वा की कहानी यहाँ नहीं सुनाई जायेगी क्योंकि ये कहानी आज भी घर-घर में सुनने को मिलती है। कोई कुछ भी कहे आज यौनांकाक्षा की भावना इतनी चरम पर पहुँच गई है कि सम्बन्धों के नाम पर बस स्त्री-पुरुष ही दिखायी देते हैं।
अपनी लड़की को अकेले भेजने के नाम पर पसीने छूट जाते हैं।
किसी रिश्तेदार के घर पर कई दिनों तक अकेले छोड़ने की बातें अब स्वप्न की बातें हैं।
रिश्तों के नाम पर अब भाई बहिन के बीच के, बाप बेटी के बीच के शारीरिक सम्बन्ध तक सामने आ गये हैं।
(पढ़ा लिखा समाज इस बात को नहीं मानेगा)
कहाँ सुरक्षित है अब लड़की?
किसके साथ सहज है अब लड़की?
क्यों सिर्फ एक शरीर है एक लड़की?
महिला दिवस के नाम पर भाषणों के दौर चलेंगे पर एक सवाल क्या कभी ट्रेन के शौचालयों में नारियों के लिए लिखे सुन्दर, सभ्रान्त, रिश्ते निभाते शब्दों की ओर गौर किया है?
रात को किसी भी जरूरी काम से बाहर दिखती लड़की को देख कर अपनी आँखों में तैर आये लाल डोरों को देखा है?
चलिए महिला दिवस के नाम पर किसी सभा में जाकर ढेरों महिलाओं के शारीरिक सौन्दर्य को तो निहार ही आइये।
‘‘मेरा वजन भी कुछ बढ़ गया था, मैं देखने में भी बहुत अजीब सी लगने लगी थी, मेरे पति अब मुझमें रुचि नहीं दिखा रहे थे, तब मुझे लगा कि अब कुछ करना होगा। तब मैंने ली ...................... ’’ इस तरह के वाक्य अधिकांशतः आपको किसी न किसी चैनल पर किसी विशेष दवा या किसी विशेष यंत्र के विज्ञापन में देखने को मिल जायेंगे। अब इस पंक्ति के बाद ‘‘अब मेरे पति मुझे छोड़ कर जाते ही नहीं, मैं फिर पहले जैसी ही जवान हो गयी हूँ ................ ’’ इस तरह की कुछ पंक्तियाँ सुनने को मिलतीं हैं।
क्या आपको इस तरह के विज्ञापनों को देख-सुन कर कुछ खास तरह की बात याद आती है? शायद हाँ, शायद न। इस तरह के विज्ञापनों में नारी की छवि को एक शारीरिक सौन्दर्य वाली छवि से ग्रस्त दिखाया जाता है। जिसके शारीरिक सौन्दर्य को तो बढ़ाने के तरीके बताये जाते हैं पर इस तरह के विज्ञापनों में यह नहीं बताया जाता है कि किस प्रकार एक नारी अपने विश्वास में बढ़ोत्तरी करे।
नारी को लेकर रचे जाते विज्ञापनों में नारी की छवि को लेकर कई बार सवाल उठे हैं, कई बार इसको कहस का मुद्दा बनाया गया है किन्तु किसी प्रकार का हल दिखता नहीं है।
सवाल ये है कि क्या अपनी कमर को कम करके, अपने शारीरिक सौन्दर्य को कम करके ही नारी अपने आपको समाज में स्थापित कर सकती है?
आए वो कुछ पल को और नहीं मिला कुछ तो चल दिए। बात है हमारे फोलोवार्स की जो पहली ही पोस्ट पर धकधकाते आ गए थे। क्या हुआ किअब चले गए? चलो ये तो सफर है एक आता है तो एक जाता है पर सत्यता ये है कि किसी महिला के साथ इस तरह ............
ये किसी और के लिए नहीं उनके लिए जो किसी भी महिला को इस रूप में देखते हैं तो तुंरत खींचे चले आते हैं और कुछ भी न मिल पाने पर बापस लौट जाते हैं। हम दे भी क्या सकते थे सिवाय कुछ टिप्पणी के। अब जब चले ही गए हो तो इतना कहेंगे "ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना।"
पल भर का साथ और कई पलों की जुदाई ये तो जिंदगी का सत्य है। पर जो इसके अलावा इस सत्य पर जा रहा हो कि मैंने उसके ब्लॉग पर आकर कुछ नहीं लिखा तो शायद मैं अभी सीख नहीं पाई ब्लॉग के नियम क़ानून। धीरे धीरे प्रयास है समझने का और फ़िर बताने का कि किसने क्या लिखा और किस तरह का लिखा। अभी तो ये शुरुआत है, आगे-आगे देखिये होता है क्या?
सुकून के पल क्या होते हैं यह यदि आपको पता करना हो तो सुबह सुबह अपनी छत पर खड़े होकर खामोशी से उगते हुए सूरज को देखिए, चहचहाते हुए पंछियों के मीठे राग को सुनिये। आज के इस झंझट भरे माहौल में शायद है कि कोई सुबह की गुनगुनी धूप का आनन्द लेता हो? शायद ही कोई ऐसा होगाजो उगते सूरज की लालिमा को आत्मसात करता होगा? हर तरफ बस अपने आपसे ही लड़ने का काम चल रहा है। हर कोई बस अपने को आत्मसात करने का काम कर रहा है। अपने आपमें ही व्यस्त रहने के कारण आज लोगों में मेलजोल की भावना लगभग समाप्त सी होती जा रही है और सामाजिकता का लोप हो रहा है।
पार्क, बगीचों, छोटे-छोटे मैदानों में खलते छोटे-छोटे बच्चों के समूह, इधर-उधर टहलते घर के बड़े-बूढ़े जो बातों ही बातों में तमाम काम की बातें बता जाया करते थे, बच्चों के साथ बच्चा बनकर साथ में घूमते-घूमते पाठ्यक्रम की बहुत सी कठिनाईयों को हल कर दिया करते थे। अब ऐसा कुछ नहीं दिखता है। यदि दो-एक बड़े-बूढ़े दिखायी भी देते हैं तो वे अपने आपसे ही द्वंद्व करते दिखते हैं। दोचार बच्चे जो दिखते हैं वे हैं जो घरों में कम्प्यूटर आदि की सुविधा से वंचित हैं।
मशीनी जिंदगी का बहुत ही सुंदर नमूना हम सब प्रस्तुत करने में लगे हैं। क्या वाकई हम आज इंसान कम और मशीन अधिक होते जा रहे हैं?
सुख के चरम खोजने में कल बहुत से नवयुवक-युवतियों को बेइज्जती का सामना भी करना पड़ा। चरम सुख क्या है और कैसा है यह वही जानता है जो इस सुख को प्राप्त करचुका हो। विचार ये करना चाहिए कि क्या शारीरिक सुख ही चरम सुख है। कहा जाता है कि प्यार की शुरुआत चेहरे से शुरू होकर क्रमशः नीचे की ओर होती है। जितनी देर प्यार का आरम्भ चेहरे में लगाता है उससे कहीं ज्यादा समय वह देह की मांसलता को जांचने में लगा देता है।
शरीर के उभार, शरीर का कटान, देह की माप आदि-आदि क्या कुछ नहीं है जो किसी भी अच्छी भली स्त्री को उत्पाद बना देती है। कुछ स्त्रियां अपने स्वरूप से खुद को उत्पाद बनातीं हैं किन्तु अधिकतर स्त्रियों को पुरुषों की निगाहें ही उत्पाद बनातीं हैं। कपड़ों के ऊपर से भी नंगा कर देने की ताकत रखने वाली कामुक निगाहों का परिणाम होता है कि स्त्री को कुलटा तक कह दिया जाता है।
बहरहाल सुख की चाह हो या फिर तृप्ति के लिए किसी शरीर की मांग, सब में शरीर ही सर्वोपरि हो जाता है। क्या कभी कोई ऐसा दिन आयेगा जबकि प्यार की पहचान शरीर की माप से ऊपर, शरीर की गोलइयों से इतर नारी के व्यक्तित्व के रूप में पुरुष करेगा? अपने आसपास समान कार्य करने की स्थिति में भी नारी उसकी निगाहों से स्वयं का बलात्कार होते महसूस नहीं करेगी?
आज पहली ही पोस्ट पर चार टिप्पणी देखकर लगा कि शायद कुछ सार्थक लिख सकूँ। हालांकि लेखन से पुराना नाता रहा है पर कहा जाये तो स्वान्तः सुखाय वाली स्थिति ही अधिक रही है। इंटरनेट पर तो पहली ही बार लिखा गया और उस पर एक समर्थक का मिलना भी उत्साहवर्द्धक रहा। यद्यपि पहली पोस्ट पर मिली पहली टिप्पणी से लगा कि अभी भी महिलाओं को लेकर एक तरफा उत्पाद वाली सोच है पर बाद में मिली टिप्पणियों ने सहारा सा दिया। इसी उत्साह में एक और पोस्ट - आज की दूसरी पोस्ट- आपके समक्ष है।
कौन किस नजर से देखता है
क्या सोचता है
नहीं फर्क,
कौन किस तरह सराहता है
कौन क्या कह गुजरता है
नहीं फर्क,
बदलते वक्त के साथ
बदलती है नजर,
कौन वक्त के साथ बदलता है
नहीं फर्क,
है याद आज भी दिल में उसकी
कहीं गहरे तक,
कौन अपने दिल को बदलता है
नहीं फर्क,
दरिया भी बुझा सकता है
एक प्यासे की प्यास,
कौन ओस की बूँद से बुझाता है
नहीं फर्क।
अपना ब्लाग तो बहुत दिन पहले बना लिया था किन्तु क्या लिखें और कब लिखें ये समझ से बाहर था। अब लगा कि आज का दिन सबसे अच्छा है अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का, सबके सामने रखने का...... बस इसी आकांक्षा के साथ ओस की बूँद सज पड़ी है आपके सामने, देखना है कि क्या टिकेगी पल भर से अधिक.........
मैं अनुभूति की चाह,
अनन्त आकाश की राह
खोजती हूँ।
सोचती हूँ
कभी आयेगा वो पल
जबकि मिलेगा
सुकून दो पल।
आज सज जाती हूँ
बनके शबनम और
फिर बिखर जाती हूँ
आने पर उसका उजास।
चलेगा कब तलक यूँ
सजना और बिखरना?
पल भर को सजना
और फिर
पल भर में बिखरना,
एक ओस की बूँद की तरह।