14.2.09

नहीं फर्क

आज पहली ही पोस्ट पर चार टिप्पणी देखकर लगा कि शायद कुछ सार्थक लिख सकूँ। हालांकि लेखन से पुराना नाता रहा है पर कहा जाये तो स्वान्तः सुखाय वाली स्थिति ही अधिक रही है। इंटरनेट पर तो पहली ही बार लिखा गया और उस पर एक समर्थक का मिलना भी उत्साहवर्द्धक रहा। यद्यपि पहली पोस्ट पर मिली पहली टिप्पणी से लगा कि अभी भी महिलाओं को लेकर एक तरफा उत्पाद वाली सोच है पर बाद में मिली टिप्पणियों ने सहारा सा दिया। इसी उत्साह में एक और पोस्ट - आज की दूसरी पोस्ट- आपके समक्ष है।

कौन किस नजर से देखता है
क्या सोचता है
नहीं फर्क,
कौन किस तरह सराहता है
कौन क्या कह गुजरता है
नहीं फर्क,
बदलते वक्त के साथ
बदलती है नजर,
कौन वक्त के साथ बदलता है
नहीं फर्क,
है याद आज भी दिल में उसकी
कहीं गहरे तक,
कौन अपने दिल को बदलता है
नहीं फर्क,
दरिया भी बुझा सकता है
एक प्यासे की प्यास,
कौन ओस की बूँद से बुझाता है
नहीं फर्क।

1 comment:

  1. sahi likhaa hai aapne . har kisi ki apni apni soch hoti hai aur apna nazariya. magar samajhdaar aadmi wahee hai jo sune sabki aur kere apne mann ki.

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