9.3.09

होली की आड़ में

रंगो का त्योहार होली कल है। लोगों का शुभकामनायें देना और कहीं न कहीं रंग लगाने का क्रम शुरू हो भी चुका है। मजे उन लोगों के हैं जो आम दिनों में कुछ नहीं कर पाते और अब होली के बहाने भाभी का नाम लेकर रंगों में सराबोर होकर उनके शरीर को किसी न किसी रूप में छूने की कोशिश करेंगे।

क्या अब होली का यही अर्थ रह गया है?

बहुत अच्छी तरह से याद है कि बचपन में हम सब भाई बहिन एक साथ टोली बना कर लोगों के घरों में आया जाया करते थे पर अब????? अब ऐसा कुछ भी नहीं बचा। अपने आपमें सिमट कर घर के लोगों के साथ ही होली के आयोजन की औपचारिकता का निर्वाह कर लेते हैं और बस।

बाहर जाने पर तमाम तरह के कमेंट, शराब पिये लड़कियों को लालचियों की तरह घूरते लोग, आँखों ही आँखों में सारे शरीर से खेलते लोग, बिना बदन छुए ही बलात्कार करते लोग................. क्यों खलें बाहर निकल कर ऐसी होली?

घर पर ही रहे और आपको कहते हैं ‘‘होली मुबारक’’

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