19.2.09

मशीन होती जिंदगी

सुकून के पल क्या होते हैं यह यदि आपको पता करना हो तो सुबह सुबह अपनी छत पर खड़े होकर खामोशी से उगते हुए सूरज को देखिए, चहचहाते हुए पंछियों के मीठे राग को सुनिये। आज के इस झंझट भरे माहौल में शायद है कि कोई सुबह की गुनगुनी धूप का आनन्द लेता हो? शायद ही कोई ऐसा होगाजो उगते सूरज की लालिमा को आत्मसात करता होगा? हर तरफ बस अपने आपसे ही लड़ने का काम चल रहा है। हर कोई बस अपने को आत्मसात करने का काम कर रहा है। अपने आपमें ही व्यस्त रहने के कारण आज लोगों में मेलजोल की भावना लगभग समाप्त सी होती जा रही है और सामाजिकता का लोप हो रहा है।
पार्क, बगीचों, छोटे-छोटे मैदानों में खलते छोटे-छोटे बच्चों के समूह, इधर-उधर टहलते घर के बड़े-बूढ़े जो बातों ही बातों में तमाम काम की बातें बता जाया करते थे, बच्चों के साथ बच्चा बनकर साथ में घूमते-घूमते पाठ्यक्रम की बहुत सी कठिनाईयों को हल कर दिया करते थे। अब ऐसा कुछ नहीं दिखता है। यदि दो-एक बड़े-बूढ़े दिखायी भी देते हैं तो वे अपने आपसे ही द्वंद्व करते दिखते हैं। दोचार बच्चे जो दिखते हैं वे हैं जो घरों में कम्प्यूटर आदि की सुविधा से वंचित हैं।
मशीनी जिंदगी का बहुत ही सुंदर नमूना हम सब प्रस्तुत करने में लगे हैं। क्या वाकई हम आज इंसान कम और मशीन अधिक होते जा रहे हैं?

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