23.4.09

न जाने क्या-क्या होगा इस चुनाव में?

सपनों की उड़ान इतनी तेज भी नहीं थी किउसे पूरा भी न कर सकती थी पर लगा कि अब हारना ही है। ऐसा ही कुछ आया था दिमाग में जब कि मैं चली जा रही थी उस पार। सब कुछ ठीक वैसा ही पाया जैसा कि छोड़ गई थी। वही दीवार, वही दरवाजे, वही खिड़कियाँ.......लोग भी वही पर कुछ ऐसा भी लग रहा था कि जैसे कुछ बदल भी गया है।

हाँ जी बदला था तो अब लोगों का नजरिया। इधर अपनी शौकिया पत्रकारिता के कारण फील्ड में थी। घूमते-घामते अपने गाँव की तरफ़ मुड़ गई। वहां लोगों को देख कर लगा कि अब वो बात नहीं रह गई है। आदमी की शक्ल में अब दरिन्दे घूमते दिख रहे थे। नजरों में वहशीपन, हर कोई उनको अपना दुश्मन दिख रहा था। कारण था चुनाव.....

इस चुनाव में न जाने और क्या-क्या होगा?

5.4.09

मैं दे सकती हूँ सब कुछ

आओ मैं तुम्हें
अपने प्यार से सराबोर कर दूँ,
आओ मैं तुम्हारे
व्यथित मन को शांत कर दूँ,
आओ मैं तुम्हारी
धड़कनों को धड़कने का बहाना दूँ,
आओ मैं तुम्हें
जिन्दगी जीने का ठिकाना दूँ,
आओ मैं तुम्हें
अपने तन की तपिश दूँ,
मैं तुम्हें दे सकती हूँ
वह सब जो तुम चाहो,
मैं दे सकती हूँ वह सुख
जो तुम तलाशो,
आओ मेरी बाँहों में
और खो जाओ मेरी दुनिया में,
न शरमाओ,
पास आओ,
तुमने तो खोजा है हमेशा
नारी में उसका तन,
नहीं खोजा उसका मन,
तुम्हारी तलाश के लिए नहीं,
तुम्हारी प्यास के लिए नहीं,
मैं सब कुछ दे सकती हूँ,
क्योंकि
मैं नारी हूँ,
मैं माँ हूँ,
मैं दात्री हूँ,
पर एक पल को रुको
और सोचो,
तुम क्या हो?