26.2.09

चले गए वो छोड़ कर

आए वो कुछ पल को और नहीं मिला कुछ तो चल दिए। बात है हमारे फोलोवार्स की जो पहली ही पोस्ट पर धकधकाते आ गए थे। क्या हुआ किअब चले गए? चलो ये तो सफर है एक आता है तो एक जाता है पर सत्यता ये है कि किसी महिला के साथ इस तरह ............

ये किसी और के लिए नहीं उनके लिए जो किसी भी महिला को इस रूप में देखते हैं तो तुंरत खींचे चले आते हैं और कुछ भी न मिल पाने पर बापस लौट जाते हैं। हम दे भी क्या सकते थे सिवाय कुछ टिप्पणी के। अब जब चले ही गए हो तो इतना कहेंगे "ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना।"

पल भर का साथ और कई पलों की जुदाई ये तो जिंदगी का सत्य है। पर जो इसके अलावा इस सत्य पर जा रहा हो कि मैंने उसके ब्लॉग पर आकर कुछ नहीं लिखा तो शायद मैं अभी सीख नहीं पाई ब्लॉग के नियम क़ानून। धीरे धीरे प्रयास है समझने का और फ़िर बताने का कि किसने क्या लिखा और किस तरह का लिखा। अभी तो ये शुरुआत है, आगे-आगे देखिये होता है क्या?

21.2.09

चड्डी, पेंटी, गुलाबी रंग

आज सुबह-सुबह भटकते हुए कुछ इधर-उधर पर निगाह मार रही थी (लड़कियों को इधर-उधर निगाह नहीं मारना चाहिए अन्यथा छिछोरी कहा जा सकता है) देखा कि अभी तक गुलाबी चड्डी अपनी चमक के साथ ब्लाग पर मौजूद है। कुछ को समस्या यह कि तेरी चड्डी मेरी चड्डी से गुलाबी कैसे? क्यों उसे पैंटी नहीं कहा, क्यों उसे चड्डी कहा अब ये चर्चा का विषय है।
चलिए यदि उन मोहतरमा ने चड्डी के स्थान पर पैंटी कहा होता तो क्या उसकी गर्माहट चली जाती। वैसे ये शब्द सुन कर ही कहाँ-कहाँ गर्माहट आयी होगी बताने की जरूरत नहीं। यह तो तय है कि अभी भी आधुनिकता का पाठ पढ़ाने के बाद भी पुरुष नारी को अपने अधिकार में ही रखना चाहता है। वेलेंटाइन डे के नाम पर कुछ लोग हो सकता है कि असंस्कृति को बढ़ावा दे रहे हों पर क्या सभी लोग ऐसा कर रहे हैं?
भटकते नहीं हैं, बात चड्डी और पैंटी की.......जो लोग इन शब्दों के अच्छे बुरे पर अपने ब्लाग को रंगने में लगे हैं वे भी मन ही मन में स्वाद बना रहे होते हैं। क्यों हम दोतरफा व्यवहार करते देखे जाते हैं? लड़कियों के प्रति बड़ा ही आदर दिखाने के साथ-साथ उसे अपने अंक में लेना चाहते हैं। वैसे विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण प्रत्येक जीवधारी में होता है। अन्तर इस बात का है कि इसे किस तरह से ले रहा है। चड्डी और गुलाबी रंग को इसी प्रकार से लिया जाना चाहिए। ये प्रतीक है उस मानसिकता के खिलाफ जिसे साथ-साथ जाते भाई-बहिन भी प्रेमी-प्रमिका नजर आते हैं। यह विद्रोह का प्रतीक है उस मानसिकता के विरुद्ध जो किसी लड़के के साथ लड़की को देख लेने पर कहता है कि ‘माल कहाँ से उड़ाया है?’
अब लड़कियों को माल, वस्तु और देह से ऊपर भी समझने की कोशिश करनी होगी वरना जो चड्डियाँ आज महिलायें भेज रहीं हैं वो कल को पुरुष समेटते नजर आयेंगे।

19.2.09

मशीन होती जिंदगी

सुकून के पल क्या होते हैं यह यदि आपको पता करना हो तो सुबह सुबह अपनी छत पर खड़े होकर खामोशी से उगते हुए सूरज को देखिए, चहचहाते हुए पंछियों के मीठे राग को सुनिये। आज के इस झंझट भरे माहौल में शायद है कि कोई सुबह की गुनगुनी धूप का आनन्द लेता हो? शायद ही कोई ऐसा होगाजो उगते सूरज की लालिमा को आत्मसात करता होगा? हर तरफ बस अपने आपसे ही लड़ने का काम चल रहा है। हर कोई बस अपने को आत्मसात करने का काम कर रहा है। अपने आपमें ही व्यस्त रहने के कारण आज लोगों में मेलजोल की भावना लगभग समाप्त सी होती जा रही है और सामाजिकता का लोप हो रहा है।
पार्क, बगीचों, छोटे-छोटे मैदानों में खलते छोटे-छोटे बच्चों के समूह, इधर-उधर टहलते घर के बड़े-बूढ़े जो बातों ही बातों में तमाम काम की बातें बता जाया करते थे, बच्चों के साथ बच्चा बनकर साथ में घूमते-घूमते पाठ्यक्रम की बहुत सी कठिनाईयों को हल कर दिया करते थे। अब ऐसा कुछ नहीं दिखता है। यदि दो-एक बड़े-बूढ़े दिखायी भी देते हैं तो वे अपने आपसे ही द्वंद्व करते दिखते हैं। दोचार बच्चे जो दिखते हैं वे हैं जो घरों में कम्प्यूटर आदि की सुविधा से वंचित हैं।
मशीनी जिंदगी का बहुत ही सुंदर नमूना हम सब प्रस्तुत करने में लगे हैं। क्या वाकई हम आज इंसान कम और मशीन अधिक होते जा रहे हैं?

18.2.09

संवेदना की चाह


हर सांस संवेदना की चाह रखती है,
हर धड़कन दिल में आसमान रखती है।
कौन जाने कहाँ रुके उड़ान?
कौन जाने कहाँ शाम हो?
है मकसद बिना रुके आगे बढ़ने का,
अपने आप को कुछ साबित करने का,
क्या मिला है मौका या
क्या मिलेगा मौका?
कौन बतायेगा मुझे?
कौन समझायेगा मुझे?
क्यों समझते हो मुझे कि
बनूँगी बोझ,
समझो कि मैं भी हूँ
एक अस्तित्वधारी,
एक जीवधारी।
नहीं देख पाते हो तुम मुझे अभी,
क्योंकि नहीं है चाहत तुम्हें
मुझे देखने की,
देखा है तुमने मुझे यंत्र के सहारे,
रुको, देखो मुझे अपनी आंखों के सहारे,
तब बताना कि क्या मैं बोझ हूँ?
तब बताना कि क्या मैं तुम्हारी नहीं?
तब बताना.............
आह! क्या और एक मौका नहीं है?
आह! क्या बस एक आह ही है....
क्या बस एक आह ही है?????

15.2.09

चरम सुख की चाह, शरीर की मांग

सुख के चरम खोजने में कल बहुत से नवयुवक-युवतियों को बेइज्जती का सामना भी करना पड़ा। चरम सुख क्या है और कैसा है यह वही जानता है जो इस सुख को प्राप्त करचुका हो। विचार ये करना चाहिए कि क्या शारीरिक सुख ही चरम सुख है। कहा जाता है कि प्यार की शुरुआत चेहरे से शुरू होकर क्रमशः नीचे की ओर होती है। जितनी देर प्यार का आरम्भ चेहरे में लगाता है उससे कहीं ज्यादा समय वह देह की मांसलता को जांचने में लगा देता है।
शरीर के उभार, शरीर का कटान, देह की माप आदि-आदि क्या कुछ नहीं है जो किसी भी अच्छी भली स्त्री को उत्पाद बना देती है। कुछ स्त्रियां अपने स्वरूप से खुद को उत्पाद बनातीं हैं किन्तु अधिकतर स्त्रियों को पुरुषों की निगाहें ही उत्पाद बनातीं हैं। कपड़ों के ऊपर से भी नंगा कर देने की ताकत रखने वाली कामुक निगाहों का परिणाम होता है कि स्त्री को कुलटा तक कह दिया जाता है।
बहरहाल सुख की चाह हो या फिर तृप्ति के लिए किसी शरीर की मांग, सब में शरीर ही सर्वोपरि हो जाता है। क्या कभी कोई ऐसा दिन आयेगा जबकि प्यार की पहचान शरीर की माप से ऊपर, शरीर की गोलइयों से इतर नारी के व्यक्तित्व के रूप में पुरुष करेगा? अपने आसपास समान कार्य करने की स्थिति में भी नारी उसकी निगाहों से स्वयं का बलात्कार होते महसूस नहीं करेगी?

14.2.09

नहीं फर्क

आज पहली ही पोस्ट पर चार टिप्पणी देखकर लगा कि शायद कुछ सार्थक लिख सकूँ। हालांकि लेखन से पुराना नाता रहा है पर कहा जाये तो स्वान्तः सुखाय वाली स्थिति ही अधिक रही है। इंटरनेट पर तो पहली ही बार लिखा गया और उस पर एक समर्थक का मिलना भी उत्साहवर्द्धक रहा। यद्यपि पहली पोस्ट पर मिली पहली टिप्पणी से लगा कि अभी भी महिलाओं को लेकर एक तरफा उत्पाद वाली सोच है पर बाद में मिली टिप्पणियों ने सहारा सा दिया। इसी उत्साह में एक और पोस्ट - आज की दूसरी पोस्ट- आपके समक्ष है।

कौन किस नजर से देखता है
क्या सोचता है
नहीं फर्क,
कौन किस तरह सराहता है
कौन क्या कह गुजरता है
नहीं फर्क,
बदलते वक्त के साथ
बदलती है नजर,
कौन वक्त के साथ बदलता है
नहीं फर्क,
है याद आज भी दिल में उसकी
कहीं गहरे तक,
कौन अपने दिल को बदलता है
नहीं फर्क,
दरिया भी बुझा सकता है
एक प्यासे की प्यास,
कौन ओस की बूँद से बुझाता है
नहीं फर्क।

ओस की बूँद

अपना ब्लाग तो बहुत दिन पहले बना लिया था किन्तु क्या लिखें और कब लिखें ये समझ से बाहर था। अब लगा कि आज का दिन सबसे अच्छा है अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का, सबके सामने रखने का...... बस इसी आकांक्षा के साथ ओस की बूँद सज पड़ी है आपके सामने, देखना है कि क्या टिकेगी पल भर से अधिक.........

मैं अनुभूति की चाह,
अनन्त आकाश की राह
खोजती हूँ।
सोचती हूँ
कभी आयेगा वो पल
जबकि मिलेगा
सुकून दो पल।
आज सज जाती हूँ
बनके शबनम और
फिर बिखर जाती हूँ
आने पर उसका उजास।
चलेगा कब तलक यूँ
सजना और बिखरना?
पल भर को सजना
और फिर
पल भर में बिखरना,
एक ओस की बूँद की तरह।